Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


114. मोहनगृह की मन्त्रणा : वैशाली की नगरवधू

संथागार के पिछले भाग से संलग्न निशान्त हर्म्य थे, जिसमें चारों ओर अनेक अट्टालिकाएं ऐसी चतुराई से बनाई गई थीं , जिनकी भीत और निकास के मार्गों का सरलता से पता ही नहीं लगता था । एक बार एक अपरिचितजन उन टेढ़े-तिरछे मार्गों में फंसकर फिर निकल ही नहीं सकता था । इसी निशान्त के बीचों-बीच भूगर्भ में यह मोहनगृह था । इसके द्वार के समीप ही चैत्य देवता का थान था । इस चैत्य में आने -जानेवालों का तांता लगा ही रहता था । इससे इस ओर आने -जाने वालों की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती थी । चैत्य के देवता की विशाल मूर्ति पोली धातु-निर्मित थी । इसी मूर्ति के पृष्ठ भाग में सिंहासन के नीचे मोहनगृह का गुप्त द्वार था जो यन्त्र के द्वारा खुलता था तथा जिसे यत्नपूर्वक गुप्त रखा जाता था । इस गुप्त द्वार के अतिरिक्त द्वारा था तथा था । इस द्वार मोहनगृह में आने जाने के लिए अनेक सुरंगें भी थीं जिनका सम्बन्ध उच्च राजप्रतिनिधिजनों के आवास से था । उनके आवास में से इन सुरंगों का मार्ग या तो किसी खम्भे के भीतर था , या भीत के भीतर होकर । ये द्वार इतने गुप्त थे कि निरन्तर सेवा करने वाले दास -दासी और भृत्य भी उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते थे। वज्जी संघ का यह कठोर विधान था कि मंगल- पुष्करिणी में स्नात लिच्छवि राजपुरुष को छोड़ अन्य जो कोई भी किसी भांति इन द्वारों से परिचित हों , इन द्वारों के भीतर चरण रखे, तो तुरन्त उसी समय उसका वध कर दिया जाए , फिर वह अपराधी चाहे राजपुत्र ही क्यों न हो । इन सब कारणों से इस मोहनगृह के सम्बन्ध में विविध किंवदन्तियां कहते थे। वह किस उपयोग में आता है, यह भी लोग नहीं जानते थे । वहां जाने की चेष्टा करनेवालों, जिज्ञासा करनेवालों को जिन्होंने मृत्यु -दण्ड पाते देखा था , वे वहां की विविध काल्पनिक विभीषिकाएं सुना - सुनाकर लोगों को भयभीत करते रहते थे ।

इसी मोहनगृह में आज वज्जीसंघ के विशिष्ट जनों की मंत्रणा बैठी थी । मन्त्रणागृह में सात दीपाधारों पर घृत के दीप जल रहे थे और सब मिलाकर कुल नौ पुरुष वहां गम्भीर भाव से मंत्रणा में व्यस्त थे। इन नौ पुरुषों में एक गणपति सुनन्द, दूसरे महाबलाध्यक्ष सुमन ,तीसरे सेनापति सिंह, चौथे विदेश सचिव नागसेन ,पांचवें संधिवैग्राहिक जयराज, छठे नौबलाध्यक्ष काप्यक , सातवें अर्थ सचिव भद्रिय , आठवें आगारकोष्ठक स्वर्णसेन और नौवें महाअट्टवीरक्खक सूर्य मल्ल थे। विदेशसचिव नागसेन ने मन्त्रणा का आरम्भ किया । उन्होंने कहा - “ भन्तेगण सुनें , यह मोहन - मन्त्रणा अत्यन्त अनिवार्य होने पर मैंने आमन्त्रित की थी । मेरे पास इस बात के पुष्ट प्रमाण संगृहीत हैं कि अतिनिकट भविष्य में मगध सम्राट् वैशाली पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं और उनके अमात्य ब्राह्मण वर्षकार मन्त्रयुद्ध का संचालन करने वैशाली में आए हैं । सम्राट् द्वारा उनका कलह और बहिष्कार केवल कपट योजना है, उन्होंने मन्त्रयुद्ध का वैशाली में प्रारम्भ कर दिया है और वे उसमें सर्वतोभावेन सफल होते जा रहे हैं । उनके सैकड़ों गुप्तचर विविध रूप धारण कर वैशाली में आ बसे हैं ।

अनेक नट, विट, वेश्याएं , कुटनियां , विदूषक तथा सती और तीक्ष्ण सभ्य नागरिकों के वेश में शिल्पी दूत , वणिक , सार्थवाह , सेट्ठि बनकर वैशाली में फैल गए हैं । विविध प्रकार के धूर्त चर चारों ओर भर गए हैं और यह ब्राह्मण कुण्डग्राम के ब्राह्मण - सन्निवेश में एक टूटे छप्पर के नीचे बैठ उनके द्वारा मन्त्रयुद्ध का संचालन कर रहा है। ”

गणपति सुनन्द ने कहा - “ आयुष्मान् के पास इन सब बातों के सम्बन्ध में क्या - क्या प्रमाण है ? ”

“ क्या , भन्तेगणपति , आपने कुण्डग्राम के ब्राह्मण- सन्निवेश में अभी जो घटना हुई, उसे नहीं सुना है ? ”

“ क्या आयुष्मान् उस चाण्डाल मुनि और यक्ष कन्या की बात कह रहा है ? ”

“ वही बात है भन्ते ! मैं कहता हूं , यह इस कुटिल ब्राह्मण का कोरा मन्त्र - युद्ध है । इसमें वैशाली जनपद के सौ से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो गई और अब सम्पूर्ण वैशाली भयभीत हो उस काणे कपटमुनि के चरणों में गिर-गिरकर अपनी सुख- दु: ख भावना , आकांक्षा तथा गोपनीय बातें भी बता रही है । क्या आप यह नहीं सोच सकते, कि ये सब छिद्र और जन - जन की जीवनगाथा उस कुटिल ब्राह्मण के कान में पहुंचकर वैशाली के विनाश का साधन बन रही है ? ”

“ परन्तु आयुष्मान् इसका क्या प्रमाण है, कि वह भदन्त कोई भाकुटिक वंचक है, त्यागी समर्थ ब्रह्मचारी नहीं ? ”

“ भन्ते , वह जो कुछ है उसे हमने जान लिया है । ”

“ तो कौन है वह ? ”

“ यह जयराज कहेंगे, इन्होंने वैशाली से अनुसंधान- सूत्र ग्रहण किया है। ”

“ तो आयुष्मान् जयराज कहें ! ”

“ भन्ते , वह काणा राजगृह का प्रसिद्ध नापित धूर्त प्रभंजन है । वैशाली के बहत जनों ने राजगृह में उससे बाल मुंडवाए हैं । ”- जयराज ने कहा ।

“ क्या कहा ? राजगृह का नापित! ”

“ हां भन्ते , उसका नाम प्रभंजन है और वह महाधूर्त है । ”

“ और वह यक्षिणी ? ”

“ वह राजगृह की प्रसिद्ध वेश्या मागधिका है। ”

“ किन्तु ब्राह्मण- उपनिवेश के ब्राह्मणों के उन्मत्त होकर मरने का कारण क्या है ? ”

“ पूर्व-नियोजित योजना; नन्दन साहु ने विष - मिश्रित खाद्य उन्हें दिया है। वह दुष्ट इसी कुटिल ब्राह्मण का चर है और उसकी सम्पूर्ण योजनाओं का माध्यम वाहक है। ”

“ यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! ”

“ यही नहीं भन्ते , आपने क्या विदिशा की वेश्या भद्रनन्दिनी का नाम नहीं सुना , जिसके हाथ में आज वैशाली के प्राण हैं ? ”

“ वह कौन है ? ”

“ मागध विषकन्या कुण्डनी। उसमें ऐसी सामर्थ्य है भन्ते, कि जिस पुरुष का वह चुम्बन करेगी , उसकी तुरन्त मृत्यु हो जाएगी । चम्पा की विजय का श्रेय इसी विषकन्या को है, इसी ने चम्पा के महाराज दधिवाहन के प्राण लिए हैं हन्ते! ”

“ ओह, ऐसी भयंकर सूचना ! क्या तुमने उसके सम्बन्ध में यथातथ्य जाना है । भद्र ? ”

“ भन्ते, मैं उससे मिल लिया हूं। अब तक जो लिच्छवि उसके द्वारा मरे नहीं, यह उसकी कृपा है; नहीं तो कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जिस दिन वह सौ सुवर्ण देनेवाले किसी लिच्छवि तरुण का अपने आवास में स्वागत न करती हो । यह भी सम्भव है कि वह किसी महती योजना की प्रतीक्षा में है। ”

“ यह तो अति भयंकर बात है आयुष्मान् !

नागसेन ने कहा- “ अभी अर्थसचिव भद्रिय और महाअट्टवी - रक्खक सूर्यमल्ल भी कुछ सूचनाएं देंगे । ”

“ आयुष्मान् भद्रिय कहें ! ”

“ भन्ते, आपको ज्ञात है कि चम्पा का कोई धनकुबेर कृतपुण्य सेट्ठि गृहपति अन्तरायण में कहीं से आकर बस गया है । ”

“ उसके ऐश्वर्य और सम्पदा तथा वाड़व अश्वों के सम्बन्ध में मैंने सुना है; उसकी क्या बात है ? ”

“ वह भी इसी कुटिल ब्राह्मण का चर है, वह देश - देशान्तरों से वैशाली निगम के नाम हंडियां मोल लेकर संचित कर रहा है । उसका विचार किसी भी दिन ब्राह्मण का संकेत पाते ही वैशाली के सब सेट्ठियों के टाट उलटवाने का है। ”

“ यहां तक भद्र ? ”

“ अब भन्ते , सूर्यमल्ल की सूचना भी सुनें ! ”

“ आयुष्मान् बोलें ! ”

“ भन्ते , मुझे यह सूचना देनी है कि जिस दस्यु बलभद्र के आतंक से आजकल वैशाली आतंकित है, वह भी एक मागध सेनानी है और उसके अधीन दस सहस्र साहसी भट मधुवन में छिपे हैं एवं पचास सहस्र सैन्य वज्जीगण के विविध वन्य प्रान्तों में गुप्त रूप से व्यवस्थित हैं । उसके सेनानायक, सामन्त और नायकगण वैशाली के उत्तर - क्षत्रिय - कुण्डपुर सन्निवेश , वाणिज्य- ग्राम , चापाल - चैत्य , सप्ताह- चैत्य , बहुपुत्र - चैत्य , कपिना - चैत्य आदि स्थानों में छद्मवेश और छद्म नामों से बस रहे हैं । ”

“ तो इसका अभिप्राय यह है कि अब वैशाली में कौन शत्रु है और कौन मित्र , इसका जानना ही कठिन है! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा ।

“ भन्ते ! ”नागसेन ने कहा - “ अब वैशाली विजय करने को सम्राट् के यहां आने की और सैन्य - अभियान की आवश्यकता ही नहीं है। जो कुछ हो गया है, वैशाली को जय करने के लिए वही यथेष्ट है। ”

अब सेनापति सिंह ने खड़े होकर कहा -

“ भन्ते गणपति , यह आपने शत्रुओं की विकट योजना का एक अंश सुना , अब अपने बल को भी देखिए । वैशाली का सम्पूर्ण राष्ट्र आज मदिरा और विलास में डूबा हुआ है । उसके प्राण अम्बपाली के आवास में पड़े रहते हैं । ये सेटिजन , जो असंख्य सम्पदा के साथ सम्पूर्ण व्यापार- विनिमय के भी एकमात्र स्वामी हैं , आवश्यकता पड़ने पर हमें युद्ध में कोई सहायता नहीं देंगे। हमारे कोष की दशा शोचनीय है, अर्थसचिव इस पर प्रकाश डाल सकते हैं । सैन्य -संगठन का ढांचा ढीला है, तरुण कामुक और विलासी हैं । ”उन्होंने तीखी दृष्टि स्वर्णसेन पर डाली, जो चुपचाप विमन भाव से सब बातें सुन रहे थे।

गणपति ने कहा - “ भद्र, भद्रिय क्या कुछ कहेंगे ? ”

भद्रिय ने कहा - “ केवल यही , कि यदि हमें तत्काल ही युद्ध करना पड़ा तो राजकोष की कोई सहायता नहीं मिल सकती । बलि - संग्रह नहीं हो रहा ; और जब से दस्यु बलभद्र का आतंक बढ़ा है , इसमें और भी वृद्धि हो गई है। सम्भव है, आगारकोष्ठक मित्र स्वर्णसेन , सेना को अन्न और सामग्री दे सकें । ”उन्होंने भी मुस्कराकर स्वर्णसेन की ओर देखा ।

स्वर्णसेन ने खड़े होकर कहा - “ दस्यु बलभद्र का दमन यदि तत्काल नहीं हुआ तो फिर आगार की सारी व्यवस्था नष्ट हो जाएगी । ”

अब नौबलाध्यक्ष काप्यक ने खड़े होकर कहा -

“ भन्ते गणपति, एक महत्त्वपूर्ण सूचना मुझे भी देनी है; मागधों ने गंगा के उस पार पाटलिग्राम में सेना का एक अड्डा बनाया है । वे जब- तब आकर ग्रामवासियों को घर से निकालकर स्वयं वहां रहने लगते हैं और वे गंगा और मिट्टी के तीर पर दो - दो लीग के अन्तर पर काष्ठ के कोट बनवाते जा रहे हैं । पाटलिग्राम का गंगा तट नौकाओं से पटा पड़ा है। इस प्रकार वैशाली की ऐन नाक के नीचे यह पाटलिग्राम मागधों का सैनिक स्कंधावार बनता जा रहा है और कभी वह वैशाली के नौ बल के लिए बहुत बड़ी बाधा प्रमाणित हो सकता है। ”

“ तो आयुष्मान् नागसेन कहें , कि सब बातों का विचार कर हमें क्या करणीय है ? ” स्वर्णसेन ने बीच ही में खड़े होकर कहा

“ मेरा मत है कि इस कुटिल ब्राह्मण को तुरन्त बन्दी बना लिया जाए और उन सब गुप्तचरों को भी । ”

“ यह तो खुला रण -निमन्त्रण होगा आयुष्मान्! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा,

“ और इसका परिणाम भीषण हो सकता है । ”

नागसेन ने कहा “ मेरा मत है कि हमें त्रिसूत्रीय योजना विस्तार करनी चाहिए। एक सूत्र यह कि हमें निसृष्टार्थ दूत मगध को प्रेरित करना चाहिए । यह दूत कुलीन , बहुश्रुत , बहुबान्धव , बहुकृत , बहुविद्य , बुद्धि -मेधा-प्रतिभा - सम्पन्न , मधुर भाषी, सभाचगुर , प्रगल्भ , प्रतिकार और प्रतिवाद करने में समर्थ, उत्साही , प्रभावशाली , कष्टसहिष्णु , निरभिमानी तथा स्थिर स्वभाववाला पुरुष हो । उसके साथ सब यान -वाहन पुरुष - परिवार हो , करणीय विषय का ऊहापोह करने योग्य हो ।

“ वह सम्राट को मैत्री - सन्देश दे, उसकी गतिविधि देखे , शत्रु के आटविक , अन्तपाल , नगर तथा राष्ट्र के निवासी प्रमुख जनों से मैत्री- सम्बन्ध स्थापित करे , मागध सैन्य का संगठन , व्यूह -परिपाटी, संख्या देखे- समझे। शत्रु के दुर्ग, उसका कोष , आय के साधन , प्रजा की जीविका और राष्ट्र की रक्षा एवं उसके छिद्रों को भी देखे ।

“ दूसरा सत्र यह है कि हमें अपने इंगित , चेष्टा , आचार एवं विचार किसी से भी ऐसा प्रकट नहीं करना चाहिए , जिसमें वैशाली में व्याप्त मागध दूतों को यह ज्ञात हो जाए कि हम सावधान हैं और हमारी योजना क्या है। ”

“ तीसरा सूत्र यह है कि हमें कोष, अन्न और सैन्य का भलीभांति संगठन और व्यवस्था करनी चाहिए । ”

महाबलाधिकृत ने कहा - “ मुझे योजना स्वीकृत है। आयुष्मान् नागसेन का कथन यथार्थ है । मैं प्रस्ताव करता हूं कि स्वयं नागसेन ही मगध जाएं । ”

“ नहीं भन्ते , यह ठीक नहीं होगा , मैं यहां नियुक्त हूं। मेरी अनुपस्थिति तुरन्त प्रकट हो जाएगी। मेरा प्रस्ताव है कि मित्र जयराज जाएं । ”

“ मैं स्वीकार करता हूं; परन्तु योजना मेरी अपनी होगी । प्रकट में कोई अन्य व्यक्ति बहुत - सी उपानय-सामग्री लेकर चले और मैं गुप्त रूप में । दूत का जाना वर्षकार की सम्मति से उनके लिए सम्राट से अनुनय करने के लिए हो । हम लोग सब भांति से दबे हुए हैं , भयभीत हैं , असंगठित हैं , असावधान हैं , यही भाव प्रकट हो । मेरी अनुपस्थिति भी प्रकट न हो । मेरे स्थान पर मेरा मित्र काप्यक , मेरा अभिनय करे। ”

“ यह उत्तम है आयुष्मान्! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा - “ सैन्य - संगठन का कार्य मैं आयुष्मान् सिंह को सौंपता हूं ।

“ मैं स्वीकार करता हूं। मेरी भी अपनी स्वतन्त्र योजना होगी और अभी वह गुप्त रहेगी। ”

“ तो ऐसा ही हो आयुष्मान्! अब रह गया कोष , धान्य और साधन; इसके लिए आयुष्मान् भद्रिय उपयुक्त हैं । फिर हम सबकी सहायता करेंगे । आयुष्मान् जयराज एक मास में लौट आएं, तभी दूसरी बार मोहनगृह - मन्त्रणा हो । - गणपति सुनन्द ने कहा तथा मन्त्रणा समाप्त हुई ।

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